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मा त्वा॒ सोम॑स्य॒ गल्द॑या॒ सदा॒ याच॑न्न॒हं गि॒रा । भूर्णिं॑ मृ॒गं न सव॑नेषु चुक्रुधं॒ क ईशा॑नं॒ न या॑चिषत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mā tvā somasya galdayā sadā yācann ahaṁ girā | bhūrṇim mṛgaṁ na savaneṣu cukrudhaṁ ka īśānaṁ na yāciṣat ||

पद पाठ

मा । त्वा॒ । सोम॑स्य । गल्द॑या । सदा॑ । याच॑न् । अ॒हम् । गि॒रा । भूर्णि॑म् । मृ॒गम् । न । सव॑नेषु । चु॒क्रु॒ध॒म् । कः । ईशा॑नम् । न । या॒चि॒ष॒त् ॥ ८.१.२०

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:1» मन्त्र:20 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:13» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:20


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शिव शंकर शर्मा

भक्तजन से वारंवार याच्यमान होने पर परमात्मा कदापि क्रुद्ध नहीं होता, यह इस ऋचा द्वारा दिखलाया जाता है।

पदार्थान्वयभाषाः - (सवनेषु) सकल शुभकर्मों में (सोमस्य) मानसिक प्रिय कर्म के (गल्दया) बल से तथा (गिरा) स्तुतिरूप वाणी से (सदा) सदा (याचन्) याचना करता हुआ (अहम्) मैं (त्वा) तुझको (मा+चुक्रुधम्) क्रुद्ध न करूँ। क्योंकि वारंवार याचना करने से लोक क्रुद्ध हो जाते हैं। परन्तु हे इन्द्र ! तू वैसा मत हो। क्योंकि तू (भूर्णिम्) सबका भरण-पोषण करनेवाला स्वामी है (न) और (मृगम्) तू ही मार्गणीय=जिज्ञास्य है। यहाँ लौकिक न्याय दिखलाते हैं। (कः) कौन पुरुष (ईशानम्) ईश्वर से (न+याचिषत्) नहीं माँगता है ॥२०॥
भावार्थभाषाः - सुकर्मों और स्तोत्रों से परमात्मा ही केवल याचनीय है, अन्य राजप्रभृति नहीं। क्योंकि अन्य याचना मनुष्य को नीचे गिरा देती है ॥२०॥
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आर्यमुनि

अब उपदेशकों को परमात्मा का प्रेमसहित उपदेश करना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (गिरा) स्तुतियुक्त वाणी द्वारा (सदा) सदैव (याचन्) परमात्मा की स्तुति-प्रार्थना करते हुए (सवनेषु) यज्ञों में (सोमस्य, गल्दया) परमात्मसम्बन्धी वाणी पूछने पर (त्वा) तुम पर (चुक्रुधं, मा) क्रोध मत करें, क्योंकि (भूर्णिं) सबका भरण-पोषण करनेवाले (मृगं, न) सिंहसमान (ईशानं) ईशन करनेवाले परमात्मा की (कः) कौन मनुष्य (न, याचिषत्) याचना न करेगा अर्थात् सभी पुरुष उसकी याचना करते हैं ॥२०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपदेशक उपासकों के प्रति यह उपदेश करता है कि हे उपासको ! तुम लोग सदैव यज्ञादिकर्मों में प्रवृत्त रहो और परमात्मा की वेदरूप वाणी, जो मनुष्यमात्र के लिये कल्याणकारक है, उसमें सन्देह होने पर क्रोध न करते हुए प्रतिपक्षी को यथार्थ उत्तर दो और सबका पालन-पोषण तथा रक्षण करनेवाले परमपिता परमात्मा से ही सब कामनाओं की याचना करो। वही सबके लिये इष्टफलों का प्रदाता है। यद्यपि परमात्मा सम्पूर्ण कर्मों का फलप्रदाता है और विना कर्म किये हुए कोई भी इष्टसिद्धि को प्राप्त नहीं होता, तथापि मनुष्य अपनी न्यूनता पूर्ण करने के लिये अपने से उच्च की अभिलाषा स्वाभाविक रखता है और सर्वोपरि उच्च एकमात्र परमात्मा है, इसलिये अपनी न्यूनता पूर्ण करने के लिये उसी सर्वोपरि देव से सबको याचना करनी चाहिये ॥२०॥
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शिव शंकर शर्मा

भक्तेन भूयो भूयो याच्यमानोऽपि परमात्मा न कदापि कुप्यतीत्यनया प्रदर्श्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! सवनेषु=सर्वेषु शुभेषु कर्मसु। सोमस्य=शुभकर्मणः। गल्दया=बलेन। तथा गिरा=स्तुतिलक्षणया वाण्या च द्वारया। अहम्। सदा=सर्वदा। त्वा=त्वाम्। याचन्=अभीष्टं मनोरथं प्रार्थयमानः सन्। मा चुक्रुधं=मा क्रोधयानि=मा कोपयानि। बहुशो याच्यमानस्त्वं मा क्रुद्धो भूः। कीदृशं त्वाम्। भूर्णिं=सर्वेषां भर्तारम्। पुनः। मृगन्न=मृगो मार्गणीयः अन्वेषणीयः। अन्वेषणीयञ्च। चार्थो नकारः। यतस्त्वमेव सर्वेषां भक्तानां भर्त्ता तथा अन्वेषणीयश्च वर्त्तसे। अतस्वमेव भूयोभूयः प्रार्थ्यसे। अत्र लौकिकं न्यायं प्रदर्शयति। कः=कः पुरुषः। ईशानम्=ईश्वरं=स्वामिनम्। न। याचिषत्=याचते। सर्वो हि स्वामिनं याचत इत्यर्थः ॥२०॥
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आर्यमुनि

अथ उपदेशकाः परमात्मानं प्रेम्णा उपदिशेयुरिति कथ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - उपदेशक उपासकं प्रत्याह−(गिरा) वाचा (सदा) शश्वत् (याचन्) सोमं प्रार्थयन् (अहं) अहम् (सोमस्य, गल्दया) परमात्मसम्बन्धिवाण्या त्वया पृच्छ्यमानया (त्वा) त्वा प्रति (सवनेषु) यज्ञेषु (मा) न (चुक्रुधं) क्रुद्धो भवेयं यतः (भूर्णिं) भर्त्तारं (मृगं, न) सिंहमिव (ईशानं) ईशितारं परमात्मानं (कः) को जनः (न, याचिषत्) न याचेत सर्व एव याचेतेत्यर्थः ॥२०॥